Janaula – संस्कृत में पहेली को ‘प्रेहलिका’ कहते हैं. पहेली बुद्धि पर शान चढ़ाने की कला है. लोक में अनेक ऐसी पहेलियाँ प्रचलित हैं, जिनका उत्तर देने में बड़े-बड़े की बुद्धि चकरा जाती है. प्रकट रूप में जिस वस्तु का वर्णन पहेली में होता है, वह तो कभी होती ही नहीं, सांकेतिक अर्थ पकड़ते पकड़ते सही लक्ष्य तक पहुँचा जाता है. पहेली में इतने अधिक प्रयोग पाए जाते हैं कि लोकसाहित्य की किसी भी विधा में नहीं दिखाई देते. यहाँ तक कि कोई पहेली दो-चार शब्दों में बन जाती है, तो कोई छन्दबद्ध होती है, कोई गद्य रूप में निबद्ध होती है, गेय पहेली प्रश्नोत्तर शैली में होती है. छत्तीसगढ़ में इसे ‘जनउला’ कहते हैं.
लोकोक्तियों की भाँति जनउला भी लोक-जीवन के बौद्धिक मनोरंजन का प्रमुख साधन है और सामान्य ज्ञान और अनुभव को परखने का एक माध्यम भी है. तो आइये इस ब्लॉग के माध्यम से जनउला के कुछ उदहारण पढ़े और उनके उत्तर को जाने।
छत्तीसगढ़ी पहेलियाँ – Janaula
- पर्रा भर लाई अकास म बगराई। (तारे)
- मोर ममा के’नौ सौ गाय चरे दिन बढ़े जाय. (तारागण )
- फूले फूले रींगी-चींगी, फर फरे लमडोरा। (मुनगा)
- बीच तरिया म गोबर चोथा। (कछुवा)
- लाम डाढ़ी मुहया कर कहाँ आये मोर ठुकरा। (बकरा )
- पेट खलखल पूँछी गभीन। (काला चांटा )
- ऊपर पचरी, तरी पचरी, बीच म मोंगरी मछरी (जीभ)
- आय लुलू जाय लुलू पानी ल डराय लुलू (जूता)
- कान्धे आय, कान्धे जाए, नेग-नेग में जारे जाय। (मृदंग)
- गोरिया खेत के करिया बीज। (कागज स्याही)
- कटोरा ऊपर कटोरा, बेटा बाप ले गोरा। (नारियल)
- नानकुल मटुकदास, ओन्हा पहिरे सौ पचास। (प्याज)
- ढाई महिना के छोकरा, दाढ़ी मेंछा म हुसियार। (भुट्टा)
- पहार में चारा चरे अऊ चट्टान में पानी पीये। (छुरा)
- खटिया गांथे तान-बितान, टू सुतइया क बाइस कान। (रावण मंदोदरी)
- घाम मा जनमै, हवा मा मुरझाय, गोई तोला पूछ हौं, हवा में सुख जाय. (पसीना)
- पूंछी ले पानी पियै, मुड़ी ह ललियाय। (दीपक)
- पाँच भाई के एके अँगना। (हथेली)
- रात मा गरू, दिन मा हरू. (खटिया)
- पहाड़ हे, फेर पथरा नहीं, नदी हे, फेर पानी नहीं सहर हे, फेर मनेख नहीं, वन हे फेर बिरवा नहीं। (नक्शा)
- दूर देस मा मइके तोर, गाँव-गाँव ससुरार, गली-गली तोर डउका बढ़े, घर-घर तोर परिवार। (बिजली)
- लात मारै तो चिचियाय, कान अँइठे तो भाग जाय. (मोटर सायकल)
- काटे ले कटाय नहीं, बोंगे ले बोंगाय नहीं। (छाया और पानी)
- दू झन दुब्बर, घानी के बैल, दूनो झन परे, काँच के जेल। (घड़ी)
छत्तीसगढ़ी पहेलियों की विशेषताएँ
- छत्तीसगढ़ी पहेलियाँ अप्रकट के द्वारा प्रकट का संकेत करती हैं। पहेलियाँ मानव बुद्धि को जाँचने का साधन हैं।
- यह अप्रकट इनमें वस्तु के उपमान के रूप में होता है। उपमान ग्रामीण वातावरण से ही चुने जाते हैं।
- इनकी शैली दोहे के ही रूप में होती है। ये रचनाएँ तुकान्त हैं। इनमें लय एवं सूत्र शैली होती है।
- इनमें निहित आश्चर्य, हास्य एवं जिज्ञासा की वृत्ति तथा विषय की विविधता लोकदृष्टि के वैविध्य का परिचायक है।
- इनमें कल्पना, श्रृंगार और चमत्कार शैली का उपयोग होता है।
- इसमें चित्रात्मकता, कलात्मकता तथा प्रभाव बोधकता होती है।
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