आज हम Bastar Ka Itihas Chhattisgarh विषय में बस्तर के इतिहास पर विस्तृत ज्ञान प्राप्त करेंगे। बस्तर इतिहास के सूत्र पाषाण युग अर्थात् प्रागैतिहासिक काल से मिलते हैं. बस्तर वनांचल, दण्डकारण्य का एक महत्वपूर्ण भूखण्ड माना जाता रहा है. तब इस राज्य का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं था.
दण्डक-जनपद का शासक था इक्ष्वाकु का तृतीय पुत्र-दण्ड. शुक्राचार्य, राजा दण्ड के राजगुरु थे. दण्ड के नाम पर ही इसे दण्डक जनपद और कालान्तर में सम्पूर्ण वन क्षेत्र को दण्डकारण्य कहा गया.
‘वाल्मीकि रामायण’, ‘महाभारत’, ‘वायु-पुराण’, ‘मत्स्य-पुराण’ और ‘वामन-पुराण’ आदि ग्रन्थों के अनुसार एक बार शुक्राचार्य की अनुपस्थिति में उनके आश्रम में घुस कर राजा दण्ड ने उनकी कन्या अरजा के साथ बलात्कार किया था, जिससे क्रुद्ध होकर महर्षि शुक्राचार्य ने उद्दण्ड राजा दण्ड को ऐसा श्राप दिया था कि उसका वह वैभवशाली दण्डक जनपद भस्मीभूत होकर कालान्तर में दण्डकारण्य के रूप में परिणित हो गया. इस प्रकार, राजादण्ड के नाम पर ही एक विस्तृत और भयावह वन क्षेत्र का नाम दण्डकारण्य पड़ गया था और यह नाम आज भी अपनी जगह स्थित है.
पहले इसे ‘महाकान्तार’ भी कहते थे. यह भी उल्लेखनीय है कि ‘दण्डक जनपद’ की राजधानी ‘कुंभावती’ थी, जिसे रामायण में मधुमंत बताया गया है. दण्डकारण्य की सीमा के अन्तर्गत भूतपूर्व बस्तर राज्य, जयपुर जमींदारी, चांदा जमींदारी और गोदावरी नदी के उत्तर का आधुनिक आन्ध्र प्रदेश सम्मिलित थे. अर्थात् रामायणयुगीन ‘दण्डक वन’ ही आज के बस्तर का दण्डकारण्य है, जो कभी महाकान्तार भी कहा जाता था.
बस्तर का छिंदक नागवंश (1023-1324 ई.)
- बस्तर के छिंदक नागवंश के प्रथम राजा का नाम नृपतिभूषण का उल्लेख एर्राकोट से प्राप्त शक संवत् 945 अर्थात् 1023 ई. के एक तेलुगु शिलालेख में मिलता है.
- इनका शासनकाल 1023 से 1324 ई. तक रहा।
- ये चक्रकोट के राजा के नाम से प्रसिद्ध थे।
- चक्रकोट’ का कालान्तर में इसी का रूप बदलकर ‘चित्रकोट’ हो गया.
- शाशको द्वारा धारित उपाधि को भोगवतीपुरवरेश्वर कहा जाता था.
- चक्रकोट में छिन्दक नागवंश की सत्ता लगभग 400 वर्षों तक रही।
- बस्तर क्षेत्र में नलवंश व शरभपुरवंश के उपरान्त इस क्षेत्र में नागवंशियों व काकतीय वंश ने शासन किया था।
- जिस समय दक्षिण कोसल क्षेत्र में कल्चुरि वंश का शासन था, लगभग उसी समय बस्तर क्षेत्र में छिन्दक नागवंश के राजाओं का अधिकार था।
- इस वंश के शासक स्वयं को कश्यप गोत्रीय एवं छिन्दक या सिद्धवंशी कुल का मानते थे, इसलिए इन्हें छिन्दक नागवंश कहा जाता था।
- बस्तर के नागवंशी शासकों को दो शाखाओं में विभाजित किया गया था। प्रथम शाखा का चिह्न शावक संयुक्त व्याघ्र व दूसरी शाखा का चिह्न ‘कमल कदली’ पत्र था।
बस्तर के छिन्दक नागवंश के शासक
- नृपतिभूषण
- धारावर्ष
- मधुरान्तकदेव
- सोमेश्वरदेव प्रथम
- कन्हारदेव प्रथम
- सोमेश्वरदेव द्वितीय
- जगदेव भूषण ( नरसिंह देव )
- हरिश्चन्द्र देव (अन्तिम शासक)
नृपतिभूषण
- बस्तर के छिन्दक नागवंश के प्रथम शासक का नाम नृपति भूषण ने 1023 ई. में बारसूर पर अधिकार किया था।
- इतिहासविदों ने यह सम्भावना व्यक्ति की है कि नृपति भूषण चोल राजा राजेन्द्र चोल प्रथम ने सेना के साथ बस्तर में प्रवेश किया होगा।
- इसका उल्लेख बस्तर के एरोकोट से प्राप्त एक तेलगु शिलालेखशक संवत् 945 अर्थात 1023 ई. में मिलता है।
धारावर्ष
- इसके सम्बन्ध में शक संवत् 983 (ईसवी 1060) का एक शिलालेख बारसूर से प्राप्त है।
- नृपति भूषण के उत्तराधिकारी जगदेक भूषण धारावर्श ने राज्य किया ।
- इस लेख से विदित होता है कि महाराजजगदेक भूषण के राज्यकाल में उसके महामण्डलेश्वर चन्द्रदित्य महाराज ने बारसूर में चन्द्रदित्य समुद्र नामक तालाब खुदवाया था तथा उसके तट पर चन्द्रादित्येश्वर नामक शिव मन्दिर का निर्माण कराया था।
- इन्होंने 1042 से 1060 ई. तक बारसूर को राजधानी बनाकर शासन किया था।
- चन्द्रादित्य अम्माग्राम का स्वामी था।
मधुरान्तकदेव
- जगदेक भूषण धारावर्ष की मृत्योपरान्त उसके दो सम्बन्धी मधुरांतक देव तथा सोमेश्वर देव के बीच सत्ता संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई।
- इस संघर्ष में मधुरांतक देव सफल रहा।
- मधुरांतक देव भ्रमरकोट अथवा मधुरमंडल के सत्ताधिकारी के नाम से प्रख्यात था, जिसकी राजधानी राजपुर (जगदलपुर) में थी।
- राजपुर ताम्रपत्र लेख शक संवत् 987 (ई.1065) में भ्रमरकोट्य मंडल में स्थित राजपुर ग्राम के दान तथा मधुरांतक देव ने मणिकेश्वरी के मन्दिर में
- नरबलि प्रथा को नियमित रखने के लिए अपने राज्य की राजधानी राजपुर मन्दिर को अर्पित कर दिया था।
सोमेश्वर देव प्रथम
- छिन्दक नागों में सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा सोमेश्वर देव का सर्वप्रथम उल्लेख 1069 ई. के शिलालेख में मिलता है।
- सोमेश्वर देव ने अनेक मन्दिरों का निर्माण भी करवाया था।
- सोमेश्वर देव की माता गुण्ड महादेवी भगवान विष्णु की भक्त थी।
- उसने नारायण पाल में एक विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया था और वह गांव उसने मंदिर को दिया था।
- कुरूसपाल शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमश्वर को चक्रकूट का राज्य विंध्यवासिनी देवी के प्रसाद से प्राप्त हुआ था, और उसने मधुरांतक का वध किया था। इसी लेख में विजय यात्रओं का विवरण है। उसने वेंगी को जला डाला था। भद्रपट्टन और वज्र को जीत लिया था तथा दक्षिण कोसल के 6 लाख 96 गांवों पर अपना अधिकार कर लिया था।
- कलचुरी राजा जाजल्लेदव प्रथम के 1114 ई. के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि जाजल्लदेव ने युद्ध में सोमेश्वर को उनके मन्त्रियों एवं रानियों सहित कैद कर लिया था।
- बाद में सोमेश्वर की माता के अनुरोध पर उन्हें छोड़ दिया गया।
कन्हारदेव प्रथम
- कुरूसपाल अभिलेख, राजपुर ताम्रपत्र तथा सोमेश्वर की माता गुण्ड महादेवी के नारायन पाल शिलालेख से विदित होता है कि ई. सन
- 1111 में प्रथम सोमेश्वर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कन्हर देव प्रथम शासक बना।
- सम्भवतः कन्हरदेव ने 1111 ई. से 1122 ई. तक शासन किया था।
- उसे अपने पिता से एक विशाल साम्राज्य विरासत में मिला था।
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सोमेश्वर देव द्वितीय
- कन्हर देव प्रथम की मृत्य के पश्चात् जयसिंह देव शासक बना।
- सोनारपाल शिलालेख में इसका उल्लेख किया गया था।
- इतिहासविदों ने जयसिंह देव का कार्यकाल 1122 ई. से 1147 ई. के मध्य माना है।
जगदेव भूषण ( नरसिंह देव )
- सोमेश्वर द्वितीय के बाद जगदेव भूषण (नरसिंह देव) राजा बना, जिसका शक सम्वत् 1140 अर्थात् 1218 ई. का केश्वरी जतनपाल से तथा शक सम्वत् 1147 अर्थात् 1224 ई. का स्तम्भलेख प्राप्त हुआ है।
- भैरवगढ़ के एक शिलालेख से पता चलता है कि वह माणिकेश्वरी देवी (दन्तेश्वरी) का भक्त था। मणिक देवी को दन्तेवाड़ा की प्रसिद्ध दन्तेश्वरी देवी से समीकृत किया जाता है।
- इसके बाद छिन्दक नागवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता है।
- सुनारपाल के तिथिविहीन अभिलेख से जयसिंहदेव नामक राजा का उल्लेख प्राप्त होता है।
हरिश्चन्द्र देव (अन्तिम शासक)
- हरिश्चन्द्र देव नागवंश का अन्तिम शासक था। इसने 1324 ई. तक शासन किया।
- बारंगल चालुक्य अन्नमदेव ने उसे परास्त कर चक्रकोट पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली।
- इस वंश का अन्तिम शिलालेख टेमरा से प्राप्त हुआ है, जो एक सती स्मारक लेख है। इसमें हरिश्चन्द्र का विवरण प्राप्त होता है।
- हरिश्चन्द्र देव की बेटी चमेली देवी ने काकतीय शासक अन्नमदेव से युद्ध किया था।
- चमेली देवी के पिता की पराजय हो जाने के बाद भी इसने अन्नमदेव से विवाह नहीं किया था।
- चमेली देवी की प्रतिस्पर्द्धा की कथा आज भी चक्रकोट की लोककथा के नाम से जीवित है।
बस्तर का काकतीय वंश
- छत्तीसगढ़ में काकतीय वंश का संस्थापक अन्नमदेव था।
- इस वंश का शासनकाल 1324 से 1961 ई. के मध्य तक था।
- बस्तर में नागवंशियों के उपरान्त काकतीय वंश का शासन स्थापित हुआ था।
- इस वंश ने बस्तर में सर्वाधिक लम्बे समय तक शासन किया था।
- राजा अन्नमदेव को दन्तेवाड़ा शिलालेख में अन्नमराज कहा गया है।
- इसने बस्तर में लघु राज्यों के राजाओं को पराजित किया एवं सम्पूर्ण बस्तर का अधिपति बन गया था।
- कालान्तर में परिवर्ती राजाओं ने बस्तर को अपनी राजधानी बनाया था।
- बस्तर के हल्बीभतरी मिश्रित लोकगीतों में अन्नमदेव को बाकी वंश’ भी कहा गया है।
काकतीय वंशीय शासक
स्वतन्त्र शासक (1324-1777)
- अन्नमदेव (1324-1369 ई.)
- हमीर देव (1369-1410 ई.)
- भैरवदेव (1410-1468 ई.)
- पुरुषोत्तम देव (14681534 ई.)
- जयसिंह देव (1534-1558 ई.)
- नरसिंह देव ( 1558-1602 ई.)
- प्रतापराज देव (1602-1625 ई.)
- जगदीश राज देव (1625-1639 ई.)
- वीरनारायण देव (1699-1654 ई.)
- वीरसिंह देव (1654-1680 ई.)
- दिगपाल देव (1680-1709 ई.)
- राजपाल देव (1709-1721 ई.)
- चन्देल मामा (1721-1731 ई.)
- दलपत देव (1731-1774 ई.)
- अजमेर सिंह (1774-1777 ई.)
अन्नमदेव (1324-1369 ई.)
- अन्नमदेव काकतीय वंश के संस्थापक थे।
- चंदेल राजकुमारी सोनकुंवर चन्देलीन से इनका विवाह हुआ।
- राजा अन्नमदेव को दन्तेवाड़ा शिलालेख में अन्नमराज कहा गया है।
- इसने बस्तर में लघु राज्यों के राजाओं को पराजित किया एवं सम्पूर्ण बस्तर का अधिपति बन गया था।
- कालान्तर में परिवर्ती राजाओं ने बस्तर को अपनी राजधानी बनाया था।
- बस्तर के हल्बी-भतरी मिश्रित लोकगीतों में अन्नमदेव को ‘चालकी वंश’ भी कहा गया है।
हमीर देव (1369-1410 ई.)
- 33 वर्ष की अवस्था में सिंहासनरूढ़ हुये।
- उड़ीसा (ओडिशा) के इतिहास से अन्नमदेव के उत्तराधिकारी शासक हमीरदेव को हमीरदेव या एमीराजदेव भी कहा गया है।
भैरवदेव (1410-1468 ई.)
- हमीरदेव का उत्तराधिकारी भैरवदेव था।
- रानी मेघावती आखेट विधा में निपुण थी, जिसके स्मृति चिह्न मेघी साड़ी, मेघई गोहड़ी प्रभृति (शकटिका) आज भी बस्तर में मिलते हैं।
पुरुषोत्तम देव (14681534 ई.)
- राजधानी मंधोता से बस्तर स्थानान्तरित।
- इनका विवाह बंधेल वंश की राजकुमारी कंचन कुंवरि से हुआ।
- इनको रथपति की (पुरी, ओडिशा के शासक द्वारा) उपाधि द्वारा सम्मानित।
- पुरी शासक ने 16 पहियों का रथ भी प्रदान किया था।
- भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का बस्तर में प्रारम्भ पुरुषोत्तमदेव ने किया था, जो गोचा पर्व के नाम से प्रसिद्ध है।
- बस्तर का प्रमुख दशहरा पर्व भी राज्य में प्रारम्भ कराया गया था।
जयसिंह देव (1534-1558 ई.)
- पुरुषोत्तमदेव का पुत्र जयसिंहदेव या जैसिंदेव राजगद्दी पर बैठा।
- उसकी रानी का नाम चंद्रकुंवर बघेलिन था।
- राज्याधिरोहण के अवसर पर उसकी अवस्था चौबीस की थी।
नरसिंह देव ( 1558-1602 ई.)
- जयसिंदेव का पुत्र नरसिंहदेव 23वें वर्ष की अवस्था में सिंहासन पर आसीन हुआ।
- उसकी रानी का नाम लक्ष्मीकुंवर बघेलिन था ।
प्रतापराज देव (1602-1625 ई.)
- नरसिंहदेव के पश्चात् प्रतापराजदेव अत्यन्त प्रतापी शासक था।
- इसके शासनकाल में ही गोलकुण्डा के मोहम्मद कुली कुतुबशाह की सेना ने बस्तर पर आक्रमण किया था, जिसमें कुतुबशाह की सेना बस्तर की सेना से पराजित हुई थी।
- इसके गोलकुण्डा राज्य द्वारा अहमदनगर के मलिक अम्बर के माध्यम से बस्तर में व्यवधान उत्पन्न करने का प्रयास किया गया।
जगदीश राज देव (1625-1639 ई.) तथा वीरनारायण देव (1699-1654 ई.)
- इनके शासनकाल में गोलकुण्डा के अब्दुल्ला कुतुबशाह द्वारा जैपुर तथा बस्तर के हिन्दू राज्यों पर मुसलमानों द्वारा अनेक धर्मान्धतापूर्ण आक्रमण किए गए, किन्तु सभी आक्रमण असफल रहे।
- साथ ही मुगलों ने भी इन क्षेत्रों पर आक्रमण किया, परन्तु ये भी असफल रहे।
वीरसिंह देव (1654-1680 ई.)
- वीरनारायण देव का पुत्र वीरसिंह देव बड़ा ही पराक्रमी शासक था।
- पिता की मृत्यु के पश्चात् बारह वर्ष की अवस्था में वह राजगद्दी पर बैठा था।
- उसकी रानी का नाम बदनकुँवर चन्देलिन था।
- राजा वीरसिंह देव बड़ा उदार, धार्मिक, गुणग्राही और प्रजापालक था।
- इसने अपने शासनकाल में राजपुर का दुर्ग बनवाया।
दिगपाल देव (1680-1709 ई.)
- वीरसिंहदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र दिग्पाल देव अल्पायु में गद्दी पर बैठ।
- इसने राजधानी का स्थानान्तरण चक्रकोट से बस्तर किया।
राजपाल देव (1709-1721 ई.)
- दिगपालदेव का पुत्र राजपाल देव भी अल्पायु में सिंहासन पर बैठा था.
- राजपाल देव के समय कुछ मुसलमानों ने बस्तर पर भी आक्रमण किया था।
- रायपुर के सन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय में रखे बस्तर के राजवंश से सम्बद्ध एक महत्त्वपूर्ण ताम्रपत्र से यह विदित होता है कि महाराज
- राजपाल देव ने ‘प्रौढप्रताप-चक्रवर्ती’ की उपाधि धारण की।
- राजपाल देव का बस्तर पुराणों में ‘रक्षपाल देव’ के नाम का वर्णन है।
- यह मणिकेश्वरी देवी (दन्तेश्वरी देवी) का भक्त था।
चन्देल मामा (1721-1731 ई.)
- यह चन्देल वंश का था एवं राजकुमार का मामा था।
- इसकी हत्या दलपत देव ने की थी।
दलपत देव (1731-1774 ई.)
- दलपत देव के शासनकाल के समय रतनपुर (छत्तीसगढ़) क्षेत्र भोंसलों के आक्रमण से भयभीत था।
- नीलू पन्त ने इसके शासनकाल में प्रथम भोंसला आक्रमण किया, जो असफल रहा।
- इसके परिणामस्वरूप इसने अपनी राजधानी बस्तर से जगदलपुर (1770) स्थानान्तरित की।
- इसके समय में बस्तर के बंजारों द्वारा वस्तु-विनिमय व्यापार का प्रारम्भ किया गया था।
- वस्तु-विनिमय में प्रमुख वस्तु नमक, गुड़ आदि थीं।
- बंजारे नमक के बदले जनजातियों से बहुमूल्य वनोपज प्राप्त करते थे।
- इसी समय से बस्तरवासियों के शोषण की शुरुआत हुई।
- इसने अपने नाम से दलपत तालाब / झील का निर्माण कराया, जो वर्तमान में (दलपत सागर) राज्य की सबसे बड़ी झील है।
अजमेर सिंह (1774-1777 ई.)
- अजमेर सिंह को क्रान्ति का मसीहा कहा जाता था।
- अजमेर सिंह तथा दरियावदेव के मध्य संघर्ष हुआ तथा दरियावदेव पराजित होकर जगदलपुर चला गया।
- इस प्रकार 1774 ई. में अजमेर सिंह बस्तर राजसिंहासन पर बैठा था।
- अजमेर सिंह के नेतृत्व में बस्तर का प्रथम जनजाति विद्रोह हल्बा 1774 ई. में हुआ था, परन्तु दरियावदेव के षड्यन्त्र के परिणामस्वरूप अजमेर सिंह हल्बा विद्रोह में पराजित हुए।
- दरियावदेव ने जैपुर के शासक राजा विक्रमदेव (1758-81 ई.) से मित्रता कर उसी के माध्यम से नागपुर के भोंसले व कम्पनी सरकार के अधिकारी जॉनसन से सम्पर्क किया।
- 1777 ई. में कम्पनी सरकार के प्रमुख जॉनसन व जैपुर की सेना ने पूर्व दिशा से एवं भोंसले के अधीन नागपुर की सेना ने उत्तर दिशा से जगदलपुर को घेर लिया। फलस्वरूप अजमेर सिंह परास्त होकर जगदलपुर से भागकर डोंगर चला गया।
- इसके पश्चात् कांकतीय वंश का शासन मराठों के अधीन आ गया।
काकतीय वंश का मराठाधीन शासक (1777-1818ई.)
दरियावदेव (1777-1818 ई. )
- दरियावदेव के शासनकाल में बस्तर छत्तीसगढ़ का अंग बना था।
- बस्तर में दरियावदेव ने अपने भाई अजमेर सिंह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचा और उसे राजगद्दी से हटा दिया (हल्बा आन्दोलन में पराजय) तथा स्वयं राजसिंहासन पर बैठ गया।
- सत्ता हस्तान्तरण हेतु जैपुर (ओडिशा) नरेश विक्रमदेव व भोंसला शासक बिम्बाजी के प्रतिनिधि अवीरराव के मध्य राजसिंहासन पर जीने के बाद उसने मराठों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
- 6 अप्रैल 1778 को कोटपाड़ की सन्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप बस्तर नागपुर रियासत के अधीन हो गया।
- इस सन्धि के अनुसार जैपुर नरेश को कोटपाड़, चुकपुड़ा, पौड़गढ़ और रायगढ़ का क्षेत्र मिला तथा वह मराठों का 59 हजार टकोली प्रतिवर्ष देने को स्वीकृत हुआ।
- इसके समय में 1795 ई. में कैप्टन ब्लण्ट का छत्तीसगढ़ आगमन जिसके विरोध में भोपालपट्टनम का संघर्ष हुआ।
- कैप्टन ब्लण्ट पहले अंग्रेज यात्री थे, जिन्होंने कांकेर व बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों की यात्रा की, परन्तु बस्तर में प्रवेश नहीं कर सके।
- इस समय काकतीय वंश ने मराठों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
काकतीय वंश का आंग्ल-मराठाधीन शासक (1818-1853ई.)
- महिपाल देव (1800-1842 ई.)
- भूपाल देव (1842-1853 ई.)
महिपाल देव (1800-1842 ई.)
- इसका शासनकाल 1800 से 1842 ई. के मध्य तक था।
- यह दरियावदेव का बड़ा पुत्र था तथा अंग्रेजों के अप्रत्यक्ष (1809 ई.) शासनकाल में यह बस्तर का पहला शासक था।
- महिपाल के शासनकाल में 1825 ई. में परलकोट का विद्रोह गेंदसिंह के नेतृत्व में हुआ।
- 1830 ई. में महिपाल की पराजय के पश्चात् सिहावा परगना मराठो को दिया गया।
- इसने भोंसलों को टकोली कर देना बन्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप व्यंकोजी भोंसले के सेनापति रामचन्द्र बाघ के नेतृत्व में आक्रमण किया तथा महिपाल पराजित हुआ, जिसके पश्चात् इसने मराठों की अधीनता स्वीकार कर ली।
भूपाल देव (1842-1853 ई.)
- मराठा शासकों द्वारा नरबलि प्रथा के आधार पर भूपाल देव पर अभियोग लगाया गया।
ब्रिटिशकालीन शासक (1864-1961 ई. )
- भैरवदेव (1853-1891 ई.)
- रुद्रप्रताप देव (1891-1921 ई.)
- प्रफुल्लकुमारी देवी (1921-1936 ई.)
- प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1936-1947 ई. )
भैरवदेव (1853-1891 ई.)
- अंग्रेजों के अधीन प्रथम शासक था।
- भैरवदेव के सिंहासनारूढ़ होते ही बस्तर ब्रिटिश साम्राज्य में चला गया था।
- ब्रिटिश शासन ने भैरवदेव को शासन का अधिकार दे दिया था।
- इसके शासनकाल में अंग्रेज अधिकारी चार्ल्स इलियट का 1856 ई. में बस्तर में आगमन हुआ था, जो छत्तीसगढ़ सम्भाग का प्रथम डिप्टी कमिश्नर था।
- भूपालदेव के पुत्र भैरवदेव का जन्म 1839 ई. में हुआ था तथा वह तेरह वर्ष की अवस्था में 1853 ई. में राजसिंहासन पर बैठा।
- इसके शासनकाल में लिंगगिरि विद्रोह (1856), कोई विद्रोह (1859) तथा मुड़िया विद्रोह (1876) हुए।
रुद्रप्रताप देव (1891-1921 ई.)
- भैरवदेव की मृत्यु के समय रुद्रप्रताप देव 6 वर्ष के थे।
- ब्रिटिश शासन ने रुद्रप्रताप देव को उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया था।
- यद्यपि उनकी अल्पवयस्कता के कारण 1891 ई. से 1908 ई. तक बस्तर का शासन अंग्रेजों के अधिकार में था।
- रुद्रप्रताप देव की शिक्षा-दीक्षा रायपुर के राजकुमार कॉलेज से हुई थी।
- 23 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1908 में यह बस्तर के करद राज्य के रूप में गद्दी पर बैठा। इसका कोई पुत्र नहीं था।
- 16 नवम्बर, 1921 को इनकी मृत्यु के बाद प्रथम रानी चन्द्रकुमारी से उत्पन्न महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी को उत्तराधिकारी घोषित किया गया था।
- इसके शासनकाल में जगदलपुर की टाउन प्लानिंग के अनुसार ‘चौराहों का शहर’ बनाया गया। इसने सड़कों का निर्माण भी करवाया। वर्ष 1900 में बन्दोबस्त व्यवस्था लागू की गई।
- इसने रूद्रप्रताप पुस्तकालय की स्थापना भी की।
- यूरोपीय युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने के लिए इसे ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा ‘सेण्ट ऑफ जेरूसलम’ की उपाधि दी गई।
- इसके शासनकाल में बस्तर का प्रसिद्ध ‘भूमकाल विद्रोह’ (1910) हुआ था तथा घैटीपोनी प्रथा (महिलाओं के क्रय-विक्रय से सम्बन्धित) की शुरुआत हुई थी।
प्रफुल्लकुमारी देवी (1921-1936 ई.)
- इनका राज्याभिषेक वर्ष 1922 में 12 वर्ष की आयु में हुआ था।
- इनका विवाह मयूरभंज के भतीजे राजकुमार प्रफुल्लचन्द्र भंजदेव के साथ वर्ष 1927 में हुआ था।
- प्रफुल्लकुमारी देवी के दो पुत्र व दो पुत्रियाँ थीं। यह छत्तीसगढ़ राज्य की एकमात्र महिला शासिका थी। प्रवीरचन्द्र भंजदेव इनका पुत्र था।
- ‘द इण्डियन वूमनहुड’ नामक पत्रिका में महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी के विषय में उल्लेख किया गया है। इन अपेंडी साइटिस नामक रोग से ग्रस्त होने के कारण वर्ष 1936 में लन्दन में इनकी मृत्यु हो गई।
प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1936-1947 ई. )
- यह काकतीय वंश का अन्तिम शासक था। वर्तमान में इसके नाम पर राज्य में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा तीरंदाजी के क्षेत्र में पुरस्कार दिए जाते हैं।
- ये कम उम्र के प्रसिद्ध विधायक के रूप में प्रसिद्ध थे।
- वर्ष 1948 में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया।
- छत्तीसगढ़ की रियासतों के विलयीकरण के समय बस्तर रियासत के इस शासक ने समझौते पर हस्ताक्षर किए।
- वर्ष 1966 के गोलीकाण्ड में प्रवीरचन्द्र भंजदेव की मृत्यु हो गई।
स्वतंत्रता के बाद
1948 में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया। स्वतंत्रोत्तर काल में निम्नलिखित काकतीय वंशीय उत्तरादिकारी हुए। विलय के बाद भी बस्तर की जनता श्रद्धापूर्वक इन्हे राजा मानती है।
- प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1947 -1961 ई. )
- विजयचन्द्र भंजदेव (1961 -1969 ई. )
- भरतचन्द्र भंजदेव (1969 -1996 ई. )
- कमलचन्द्र भंजदेव 1997 से वर्तमान तक
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जिसने रातों से जंग जीती है, सूर्य बनकर वहीं निकलता है..!!
जय हिंद!